एक कदम भी और चलता तो थक जाता
मंज़िल पर था यहां से किधर जाता
यहां सब की सदा आ रही थी बराबर
यहां से उतरता तो तन्हाई से मर जाता
न तरक्क़ी मिली न कामयाब ही हुए
इस मोड़ से लेकर क्या अपने घर जाता
इतना असां नही किसी का ग़ज़ल कहना
"सैफ़" के बस का होता तो वो कर जाता
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