शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

...........गीत.............

एक गीत जो कभी गाया नहीं गया

एक तो इश्क-ऐ-तपिश ऐसी बड़ती रही
मैं तड़पता रहा तू पिघलती रही
साथ हम तुम चले फिर वो क्यूँ रुक गये
और वो ऐसे रुके की चले ही नहीं
मुझे तो कहा हम मिलेंगे वहीँ
वो आए नहीं रात बढती रही .
एक तो इश्क-ऐ-तपिश ऐसी बड़ती रही
मैं तड़पता रहा तू पिघलती रही
मेरे अन्दर उन्हीं बेरुखी सी पली
बात ऐसी बढ़ी की वो रुक न सकी
मैंने सोचा की हमदम मेरे साथ है
हाँ मैं रुक सा गया और वो चलती रही
एक तो इश्क-ऐ-तपिश ऐसी बड़ती रही
मैं तड़पता रहा तू पिघलती रही
ऐ खुदा "सैफ" से हो गयी क्या खता
उसको मालूम नहीं है उसे तू बता
साथ उसके नही कोई आशना
जान जो थी बची वो निकलती रही
एक तो इश्क-ऐ-तपिश ऐसी बड़ती रही
मैं तड़पता रहा तू पिघलती रही

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